बुधवार, 17 अगस्त 2011

बचपन की बारिश



उस दिन बहुत बारिश हुई। अच्छा-खासा साफ़ मौसम था। फिर अचानक देखते ही देखते, काले, घने, भारी-भारी बादलों से घिर गया आकाश। हर तरफ चिड़ियों का चहचहाना,इधर-उधर भागना, हेलिकॅाप्टर तितलियों का उड़ना शुरू हो गया। कहीं टीने की छत पर टिनक-टिनक बारिश की बून्दें सुनाई देने लगीं। और साथ मैं भी बचपन की बारिश में भीगने लगी।

तब तो कभी भीगने से डर नहीं लगता था। बालों, कपड़ों और जूतों की फ़िक्र नहीं होती थी। हाँ, सिर्फ़ कॅापी-किताबों का ध्यान रखते थे हम। उन्हें मोटे प्लास्टिक के थैलों में लपेट कर बैग में रखा और निकल पड़े स्कूल की छुट्टी के बाद, बारिश में झूमते, दोस्तों के साथ बातें बनाते हुए, अपने-अपने घरों की ओर। कभी- कभी इस बारिश का ही बहाना लेकर देर तक स्कूल में रुककर खेलते रहते थे। हर बार एक बात ज़रूर होती थी- 'घर पहुँचने पर मिलने वाली डाँट'- चाहे भीगकर जल्दी पहुँचें, चाहे बारिश खत्म होने पर देर से। ना,ना छतरी और रेनकोट को हमने हमेशा पानी से बचाया था।

जो गड्ढे आज बड़े बुरे लगते हैं, उन्हीं में हम छपाक-छपाक खेला करते थे। और एक अजीब सी, दोस्तों से ही सुनी बात पर भरोसा करते थे कि यदि बरसात में, सड़क पर चलते-चलते, सड़ी हुई-सी बदबू आए तो इसका मतलब है कि हमारे जूतों ने किसी घोंघे का काम तमाम कर दिया है, जिसकी वजह से सिर्फ़ मेरी ही नाक में यह बदबू है। आज, कभी बारिश में चलते हुए अगर मुझे सड़ी-सी बदबू आती है तो कभी-कभी अनायास ही मैं अपने जूते उठाकर इस बात की पड़ताल करती हूँ कि मैंने कोई घोंघा तो नहीं मारा।

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