गुरुवार, 25 अगस्त 2011

मेरा बचपन और दुर्गा पूजा


बस अब कुछ ही दिनों में फिर दुर्गा पूजा आएगी और फिर दुनिया के कई हिस्सों में, हर ओर अम्बे माँ का जयकारा गूँज उठेगा। मगर जो धूम बंगाल, बिहार और झारखण्ड में दिखती है, वो और कहीं नहीं होती। इन राज्यों का हर वो व्यक्ति जो दुर्गा पूजा के दौरान कहीं और होता है, वह इस समय अपना घर, अपने लोगों को बहुत,बहुत याद करता है और शायद अपने वर्तमान शहर में इक्की-दुक्की जगहों पर मनाई जा रही पूजा में जाकर उस कमी को पूरा करने का प्रयास भी करता है। बीते कई सालों से मैं भी उन में से एक हो गई हूँ। और कभी न भूलने वाली उस याद, अपने जन्म-स्थान पर कभी हर साल महसूस की गई दुर्गा पूजा की वही धूम, वही उन्माद, फिर से जीने की इच्छा लिए निकल पड़ती हूँ मेरे शहर के उन इक्के-दुक्के पूजा पण्डालों की तरफ।

वैसे तो दुर्गा पूजा का मतलब सिर्फ माँ दुर्गा की आराधना ही होना चाहिए, मगर मेरे लिए इसके ढेर सारे माएने हैं, जिसमें सबसे ऊपर है- छुट्टी!!!!!! स्कूल की डायरी में और हमारी ज़िंदगियों में गर्मी की छुट्टियों के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान तो भाई दुर्गा पूजा "हॅालीडेज़" का ही हुआ करता था। हम बच्चों को तो पूजा पाठ से कोई मतलब रहता नहीं था!

जगह-जगह पूजा पण्डाल बनने और सजने लग जाते थे। मेरा घर दुर्गा मण्डप के काफ़ी करीब होने के कारण इस सारी प्रक्रिया से मैं अद्यतन रहती थी। वहीं दुर्गा मण्डप के सामने एक बड़ा सा "ग्राउण्ड" है, जो आम दिनों में "सब्जी मार्केट" और पूजा के दौरान "मेला ग्राउण्ड" में तब्दील हो जाता है। और यही है मेरे लिए दुर्गा पूजा का दूसरा मतलब- मेला!!! ढेर सारे झूले- छोटी और बड़ी चकरी, घोडों वाला गोल-गोल घूमने वाला झूला, वगैरह, वगैरह; एक लाइन से लगाए गए छोटे-बड़े स्टॅाल- कछ खाने-पीने के जहाँ चाट, समोसे, चाउमीन, दोसा, छोले-भटूरे; कुछ खिलौनों और श्रृँगार के सामान; कुछ सजावट के सामान, देवी-देवताओं की फ़ोटो व अन्य पोस्टर (मुख्यतः फिल्म-स्टारों के) बेचते हुए। हर तरफ़ तेज़ रोशनी वाली सजावटी लाइट्स। खूब सज-धजकर घूमने निकली औरतों और उछलते-कूदते, तरह-तरह के हठ करते बच्चों के झुण्ड। कहीं हँसती-खिलखिलाती अल्हड़ किशोरियों के प्यारे झुण्ड तो कहीं उन्हें देख-देख बेवजह खुश होते मनचले किशोरों की मस्त टोलियाँ। बैकग्राउण्ड में लगातार बजते माता रानी के भजन। वो चहल-पहल, वो मस्ती, वो शोर- हर कोई उस रंग में भींग जाना चाहता हो मानों!

एक से बढ़कर एक भव्य पण्डाल, कलाकारी और चित्रकारी के बेहतरीन नमूने लगते हैं। कभी किसी बड़े मंदिर, कभी किसी लोकप्रिय स्थान, कभी किसी अन्य थीम और कभी-कभी तो देश में हो रही विभिन्न समसामयिक घटनाओं पर भी आधारित करके बनाए जाते हैं ये पूजा पण्डाल। हममें कौतूहल रहता था कि इस बार किस विषय पर पण्डाल बनाया जाएगा। जगह-जगह बने इन पण्डालों के बीच भी सबसे अधिक मनमोहक कहलाने की होड़ रहती थी, जिसमें जीतने पर अच्छा-खासा ईनाम भी मिलता था। हम यह जानने के लिए उत्सुक रहते थे कि हमारे इलाके का पण्डाल किस स्थान पर आया और कौन जीता। यह खबर भी अखबार की सुर्खियों में होती थी। और ये चमकते-दमकते पूजा पण्डाल हैं मेरे लिए दुर्गा पूजा का एक और मतलब!!! षष्ठी और सप्तमी को अपने इलाके में घूमने के बाद, अष्टमी अथवा नवमी को फिर हम आस-पास के इलाकों के पण्डाल और मेले का लुत्फ़ उठाने निकलते थे- सपरिवार; और किसी-किसी साल पूजा पर दादाजी गाँव से आ जाते थे तब तो आनंद कई गुना बढ़ जाता था!

पण्डाल और दुकानें तो पहले ही सजने लग जाती हैं, मूर्ति स्थापना और पूजन भी शुरू हो जाता है, मगर देवी का पट तो षष्ठी की सुबह खुलता है, तब कहीं जाकर माता के सुंदर मुख के दर्शन होते हैं। सुबह से ही भक्तों का ताँता लगा रहता है। सुन्दर सी सुबह की हल्की धूप में नहा-धोकर, खुले केश के साथ, साफ-सुथरे वस्त्र पहने, सिर पर आँचल और हाथों में फ़ल-फूल और पूजा सामग्री से सुसज्जित पूजा की थाल लिए कतार में चलतीं, अपनी बारी की प्रतीक्षा में कभी मुँदी आँखों से, तो कभी आर्द्र नयनों से, हर पल होठों पर माँ का नाम जपती हुईं महिला श्रद्धालुओं को देखकर मेरा भक्ति से अनजान मन भी अपने-आप श्रद्धा से भर जाता था। फिर शाम की आरती देखने के लिए उमड़ती भीड़ में भी महिलाओं के लिए बने अलग रास्ते से, धक्का-मुक्की करते हुए हम आगे तक मूर्ति के नज़दीक पहुँच ही जाते थे। यह है मेरी दुर्गा पूजा का एक और रंग-लोगों में कल-कल बहती असीम और अनुपम भक्ति!!! माँ दु्र्गा के प्रकट होने से लेकर उनकी भिन्न-भिन्न राक्षसों से युद्ध और विजय की गाथा पुतलों के माध्यम से देर रात तक सुनाई जाती थी। बड़ा मज़ा आता था!

विजयादशमी को होने वाला रावण दहन भी मेरी यादों का अभिन्न अंग है। वैसे तो हिन्दुस्तान के कई जगहों के रावण दहन कार्यक्रम बहुचर्चित हैं, मगर अपने घर के पास, अपने दोस्तों और जाननेवालों के साथ बैठे हुए गपशप और इधर-उधर की बहसबाज़ी करते हुए अपने ही घर के बगल में कुछ ही दिन पहले काफ़ी मेहनत से बने हुए रावण भाईसाहब को, अब धू-धू करके जलते देखने का अनुभव अलग ही होता है। फिर अगली शाम, पूरे इलाके में घूम-घूमकर नाच-गान, गाजे-बाजे के साथ, अबीर की होली खेलते हुए, सभी को माता के अंतिम दर्शन कराते हुए, माता की सवारी के इर्द-गिर्द झूमते भक्तों की भीड़ सबका मन उल्लास से भर देती है। इसके साथ ही दे जाती है अगले साल की पूजा का इंतज़ार!

और भी कई छोटी-छोटी बातें हैं मेरी बचपन की दुर्गा पूजा से जुड़ी हुईं, जैसे- हर सप्तमी या अष्टमी को ज़रूर पड़ने वाली बारिश; पूजा के दौरान हर रोज़ आधी रात को शुरू होकर भोर में खत्म होने वाला बेहद बेसुरा आर्केस्ट्रा (एक बार पदमा खन्ना भी आई थीं, मगर हमें नहीं ले जाया गया था क्योंकि हम बहुत छोटे थे, मगर सुना कि बहुत भीड़ हुई थी और आनेवाले कई सालों तक हमने उस कार्यक्रम की चर्चा सुनी और तब तक हम पदमा खन्ना को पहचानने भी लग गए); कभी-कभी खुले मैदान में पर्दे पर दिखाई जाने वाली कोई पुरानी फ़िल्म; और हाँ, पूजा के नए कपड़ों को मैं कैसे भूल सकती हूँ!

बुधवार, 17 अगस्त 2011

बचपन की बारिश



उस दिन बहुत बारिश हुई। अच्छा-खासा साफ़ मौसम था। फिर अचानक देखते ही देखते, काले, घने, भारी-भारी बादलों से घिर गया आकाश। हर तरफ चिड़ियों का चहचहाना,इधर-उधर भागना, हेलिकॅाप्टर तितलियों का उड़ना शुरू हो गया। कहीं टीने की छत पर टिनक-टिनक बारिश की बून्दें सुनाई देने लगीं। और साथ मैं भी बचपन की बारिश में भीगने लगी।

तब तो कभी भीगने से डर नहीं लगता था। बालों, कपड़ों और जूतों की फ़िक्र नहीं होती थी। हाँ, सिर्फ़ कॅापी-किताबों का ध्यान रखते थे हम। उन्हें मोटे प्लास्टिक के थैलों में लपेट कर बैग में रखा और निकल पड़े स्कूल की छुट्टी के बाद, बारिश में झूमते, दोस्तों के साथ बातें बनाते हुए, अपने-अपने घरों की ओर। कभी- कभी इस बारिश का ही बहाना लेकर देर तक स्कूल में रुककर खेलते रहते थे। हर बार एक बात ज़रूर होती थी- 'घर पहुँचने पर मिलने वाली डाँट'- चाहे भीगकर जल्दी पहुँचें, चाहे बारिश खत्म होने पर देर से। ना,ना छतरी और रेनकोट को हमने हमेशा पानी से बचाया था।

जो गड्ढे आज बड़े बुरे लगते हैं, उन्हीं में हम छपाक-छपाक खेला करते थे। और एक अजीब सी, दोस्तों से ही सुनी बात पर भरोसा करते थे कि यदि बरसात में, सड़क पर चलते-चलते, सड़ी हुई-सी बदबू आए तो इसका मतलब है कि हमारे जूतों ने किसी घोंघे का काम तमाम कर दिया है, जिसकी वजह से सिर्फ़ मेरी ही नाक में यह बदबू है। आज, कभी बारिश में चलते हुए अगर मुझे सड़ी-सी बदबू आती है तो कभी-कभी अनायास ही मैं अपने जूते उठाकर इस बात की पड़ताल करती हूँ कि मैंने कोई घोंघा तो नहीं मारा।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

हिन्दी में मेरा पहला पोस्ट... :)

आज मैं बहुत खुश हूँ। :)
मुझे भाषाओं से न जाने कैसा लगाव रहा है। नहीं, नहीं इसका ये मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि मैं ढेर सारी भाषाएँ जानती हूँ :D इसलिए तो कहा, "न जाने कैसा लगाव", और आज तो मैं अपनी मातृभाषा में लिख रही हूँ। यही है मेरी खुशी का कारण।